भावनाओ कि निर्मम हत्या से उपजी विचारों की अनुपम अभिव्यक्ति से दुनिया को जो मुर्दा दिखा वही कविता है। सीने में तमाम तक़लीफ़ों की कबरगाह में से आज भी जैसे कोई प्रेतात्मा प्रश्न पूछ रही है कि तेरे ख्वाब कहाँ हैं, जो तूने देखे थे ? मैं कब्र देख कर फिर से हंस देता हूँ।
नूतन वर्ष का मेरा नूतन ख्वाब मैं देखना चाहूँगा नए साल में सबके सपने पूरे होते जैसे मेरे हुये मैं चाहूँगा हर भूख को रोटी मिले रोज़ मेरे हर भाई को काम मिले जिसे मैं जानता हूँ और जिसे मैं नहीं जानता उसे भी किसी की बेटी अगवा ना हो पूरे साल शराब पी के कपड़े...
अब हाल उनका मालूम पड़ता है अखबारों से हमने दर्द को रिसते देखा है दरारों से छतों को उखाड़ के ले गए घरों की हमारी हमने बरसात गुजारी है इन दीवारों से शहर छोड़ देते हम भी ओरों की तरह नाव बढ़ न सकी आगे कनारों से किसी किताब में नहीं सजा उनके पापों की इंसानियत...
खामोश जिस्म में भी जान अभी बाकी है तेरी वफाओं का निशान अभी बाकी है थम गयी दिल में हरारत जो तेरे दम से थी बुझे से दिल में भी अरमान अभी बाकी है हिल गया मेरा आशियाना इन थपेड़ो से आने वाला बड़ा तूफ़ान अभी बाकी है मिट गया सब जो मुहब्बत में था पाया मैंने फिर...
सर्दी में पुरानी पुलिया के नीचे जो फ़कीर रहता था मर गया आज लोग आ रहें हैं जा रहें हैं भीड़ जमा है पुलिया पे गुजरते हुये देख लेते हैं लोग झाँक कर एक पल नीचे कोतुहल होता है देखने का पर रुकने का मन नहीं अजनबी नहीं है फ़कीर यही रहता था पुलिया के नीचे रोज यही...
कल की रात सबसे हसीन रात थी उसने चूमा मेरे गुलाबी होठों को एक एहसास एक ज़ुम्बिश रोम रोम में सिहरन और वो घबराहट भी पता नहीं कैसी मैं अन्दर से अभिभूत थी और एक अनजाना डर भी पता नहीं क्या था वो जो असीम आकाश में ले जा रहा था मुझे पर मेरे पैर जमीं पर ही थे शायद...
ना पूछ मेरी हसरत मैं क्या चाहता हूँ तेरा प्यार चाहता हूँ तेरा दर्द चाहता हूँ अपना नाम ज़ुबां तेरी चाहता हूँ अपने दिल में हरारत तेरी चाहता हूँ तेरा चेहरा मेरी आँखे रूबरू चाहता हूँ हर पल है तू पास, एहसास चाहता हूँ मेरी हंसी होंठ तेरे चाहता हूँ आंसू तेरे...
मेरी मज़ार पे आना तुम एक पल के लिए मेरे घर को भी सजाना तुम एक पल के लिए यहीं बनाऊंगा ज़न्नत मैं दो ज़हानो की गरीबखाने में आना तुम एक पल के लिए कहीं खो जायेंगे अँधेरे उम्र भर के लिए चराग़ दिल का जलाना तुम एक पल के लिए कई बरस से पड़ा हूँ मैं कैदखाने में...
सन्नाटा शहर का बहरों को दिया जाता है हर तरफ लूट का व्यापार किया जाता है लोग खरीद रहे हैं दर्द अपनों से अपनों के लिए ऐसे हालात में भला कैसे जिया जाता है देव एक जी गया मंथन के गरल को पी कर यहाँ रोज अपमान का हलाहल पिया जाता है अपनों की पीठ में उतारना खंजर...